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मंजिल मिले, मिले न मिले, इसका गम नहीं।
मंजिल की जुस्तजू में मेरा कारवां तो है।।
इस मशहूर गीत के लेखक असरार साहब अवध की सरजमीन लखनऊ में पैदा हुये जहां आम अमरूद के बागात के अलावा दिलकश मुस्काराती हुई फुलों की डालियां लहलहाती है। जहां हर शाम सोहनी और हर सुबह मोहनी होकर भाऊक दिलों में नयी उमंगे पैदा करने में अगुवाकार बनती रहती है। सावन के महीनों में कोयलें मीठे मीठे तराने छेड़ती हैं। तीखे बोलों के साथ हसीनों की टोलियां चेहल कदमी करती रहती है। तो फिर क्यों न इस सरजमीन पर अधिक से अधिक शायर और लेखक जन्म लें जवां होकर मजनूं और फरहाद बनें! जोश, मजाज जैसीं उड़ान इनके विचारों में परवरिश पायें।
फिल्म "जुल्फ के साये-साये" का हीरो भी तो एक शायर ही है जो काॅलेज की तालिमी दिवारें फांदकर बेरोजगारी की कमली ओढ़े हुए बम्बई की गलियों में आ जाता है। अपनी शायराना शोहरत की बदौलत शरीफों की कोठियों में बैठते बैठते एक न एक दिन शहर की कुछ मशहूर तवायफों की कोठों पर भी विराजमान हो गया, जहां उसने तवायफों का रिसर्च स्कवालर बनकर यह अच्छी तरह जानना चाहा कि भारत वर्ष में तवायफ किन किन कारणों से बनी हंै। वह केवल उनके बनने का कारण उनकी गरीबी ही नहीं समझता है। क्या रेशम के जगमगाते हुए कपड़ों में लिपटे हुए जिस्म बाजार नहीं होते? क्या चिथड़ों में लिपटी हुई हिन्दुस्तानी नारी ने गैर मर्दों के हाथों की सरसराहट महसूस करके आत्महत्या नहीं कर ली होगी?
वह इन सवालों में उलझ कर कोयलों की इन खानों में हाथ डालकर अपने हाथों को अधिक दिन काले होने से न बचा सका। उसकी जिंदगी किसी एक मासूम नर्तकी की मोहब्बत को देखकर चीख चिल्ला उठी। आखिरकार उस मासूम नर्तकी के कत्ल के इल्जाम में भी जेल की सलाखों के पीछे उसे आकर बैठना पड़ा। फिर वह कैसे बचा?
इस फिल्म की कहानी को असरार साहब ने खूसूरत अन्दाज में समझाने की कोशिश की है। सम्वाद और गीतों में नये-नये रंग भरकर सागर ने अपने निर्देशन में इस अन्धकार के युग में इस फिल्म को एक कलात्क रूप दे दिया है सैकड़ों नये-नये कलाकारों के बीच रविराज, शशिराज,
रूही, राकेश पांडे, भारती देवी और कविता सिंह की दिलफरेब अदाकारी काबिले दीद है। संगीत की धुने महेन्द्रजीत ने एक नये ढंग से पेश करके फिल्म के नये प्लेबैक सिंगर यानी सुलक्षणा पंडित, जगजीत सिंह तथा यूनुस को अपने एहसान के बोझ तले दबाकर रख दिया है। एस.एल. शर्मा की फौटोग्राफी दो चार कदम आगे ही नजर आती है
इस फिल्म में शिक्षा का विषय यह है। क्या तवायफों (Prostitutes) को हमारे रहन-सहन के बीच रहना जरूरी है? अगर है तो क्या किसी साफ सुथरे बंगले में गंदी नालियों की रतह अलग थलग मुकाम देकर?
इन गंदी नालियों में नये इल्मो हुनर का गंगा जल छिड़क कर इन में हमेशा हमेशा के लिये कोई नये इन्कलाब का सपना सजा देना होगा। इनकी और इन के संबंधियों की शादी और शादी के बाद उनकी खान-य आबादी की समस्या किसी एक व्यक्ति के लिये ही नहीं बल्कि पूरे समाज के लिये एक बहुत बड़ी समस्या है।
क्या रेशम में लिप्टे हुये जिस्म बाजार नहीं होते?
क्या चिथड़ों में लिप्टी हुई हिन्दुस्तानी नारी के जिस्म पर अगर किसी गैर मर्द के हाथों की सरसराहट महसूस हुई तो उसने आत्म हत्या नहीं की?
इन सवालों को सोच कर समाज में पहने वाली इन परी जमालों में आर्थिक कमजोरी होने के साथ साथ क्या आधुनिक विज्ञानिक शिक्षा की कमी नहीं है? इस फिल्म का हर Scene एक नया जख्म हमारे दिमाग में उभार देता है जिसके लिये हम और हमारा पूरा समाज कोई न कोई मरहम पट्टी तलाश करने को तैयार हो जायेगा।
(From the official press booklet)